तादृशीवैष्णव

आत्मनिवेदन के भावों को जो वैष्णव सदा स्मरण करे व महाप्रभुजी द्वारा बताये प्रकार से जो निर्वाह करे वो तादृशीवैष्णव कहलाये.
तादृशीवैष्णव मे प्रभु की अलौकिक सामर्थ्य होत है इनको देहाध्यास, इन्द्रियाध्यास, काल धर्म आदि कछु बाधा करत नाहीं इनको काहु वस्तु की कछु अपेक्षा रहत नाहीं इनकी ऊपर की कृति देख के हीन भावना मन मे लावनी नहीं.इनकी कृति काहु पे कृपाकरणार्थ ही होत है. ताते इनकी सर्वकृति भगवद् कृति ही जाननी.
श्रीगुंसांईजी के सेवक एक विरक्त तादृशीवैष्णव तीनतूंबा वारे इनके साधारण से कहे वचनों मे इतनी अलौकिक सामर्थ्य भरी थी कि उसके आगे ब्रम्हा, विष्णु, महेश इनकी सामर्थ्य धरी की धरी रह गई शरण पुर्व हीश्रीगुंसांईजी के दर्शन मात्र से इनके ह्रदय मे संपूर्ण गद्यमंत्र का भाव स्फुरित हो गया.दर्शन करते ही गुसांईजी से कहे"मेने आपको पहिचाने हैं बहोत दिनभये बिछुर्यौ हों" वार्ता मे गुसांईजी कीभी अपने जीव के प्रति परस्पर ललक के दर्शन कराते वचन है "तू दैवीजीव है तोको अंगीकार करवे ही तो हम यहां आये हैं" एसे वैष्णव को अंगीकार करने मे गुसांईजी रंचक भी ढील देना नहीं चाह रहे है " तू जल ही मे ठाड़ो रह हम तोकों जलही मे नामनिवेदन कराई सरनि लेईंगे" कितनी अद्भुत करूणा के दर्शन हो रहे हैं गुसांईजी के इन वचनों मे.  निवेदन होते ही इनको संपूर्ण प्रभु लीला ह्रदयारूढ हो गई.तत्क्षण आपश्री ने निरोध का दान भी इन्हें कर दिया(गुरू बिन ऐसी कौन करे?)
वार्ता आगे बढ़ती है ये तादृशीवैष्णव प्रवास के दौरान एक ब्राम्हण वैष्णव के यहां मुकाम करते है व उन वैष्णव की आत्मीयता के वश उन्हें कुछ देने की इच्छा जाहिर करते है पर वे ब्राम्हण भी सच्चे भगवद् भक्त थे . पर तादृशीवैष्णव के अति आग्रह के कारण अपनेलिये तो नहीं पर अपने राजा के लिये एक पुत्र की कामना करते है तब ये कहे "अरे एक पुत्र तो क्या चार पुत्र होयेंगे."
     उन राजा ने इसके पुर्व पुत्र प्राप्ति के हेतू से सारे देवी देवताओं के आगे माथो घिस घिस के  असंख्य उपाय किये थे पर ब्रम्हाजी ने अपने विधान मे सपने मे भी पुत्र प्राप्ति का योग लिखा नही था .महादेवजी ने भी इसके लिये अपनी पूरी सामर्थ्य वापरली अंत मे सर्व व्यापीविष्णुजी के पास भी सिफारिश करी पर विष्णुजी  ने भी ना पाड़ दी कि ऱाजा के भाग्य मे ही पुत्र का योग नहीं है  परंतु इन वैष्णव के वचन के कारण सारे विधी के विधान पलट गये. राजा को चार पुत्र हुये ये देख के शिवजी चक्रत होके ठाकुरजी के पास पहुंचे तब शिवजी को पता चला कि ये जो कुछ भी हुआ श्रीगुंसांईजी के सेवक के आशीर्वाद से हुआ है . 
वार्ता के भाव को समझाते हरिरायजी कहते है कि यद्यपि शिवजी भी मर्यादा वैष्णव है पर उनमे भी वह सामर्थ्य नही जो पुष्टिमार्गीय वैष्णव मे हो. उसी तरह विष्णु भी प्रभु के गुणावतार है पर तत् तत्  अवतारों मे प्रभु ने अपनी पूरी सामर्थ्य प्रकट नहीं की है इसलिये  वे भी यहां असमर्थ हो गये. इसी तथ्य को श्रीमदभागवत् के (10/14/19) ब्रम्हा जी की स्तूती मे देखा जा सकता है. ब्रम्हाजी के वचनहैं- "जो अज्ञानवश आपके पूर्णपुरूषोत्तमस्वरूप को नहीं जानते उन पर आपकी माया का पर्दा पड़ा हुआ है उन्है आप उत्पत्ति से मेरे (ब्रम्हा) रूपसे,स्थिति के समय अपने (विष्णु) रूपसे व संहार के समय (शिव) रूप मे प्रतीत होते है
पर तादृशीवैष्णव के ह्रदय मे कर्तु,अकर्तुंम,अन्यथाकर्तुम  पूर्णपुरूषोत्तम बिराज रहे है इसलिये इनके पास अलौकिक सामर्थ्य थी .वार्ता मे वचन आते है" ठाकुरजी शिवजी से कहे वा वैष्णव ने मेरे पर बड़ी कृपा करी अगर वो आशीर्वाद मे ये कहतो कि राजा के यहां ठाकुरजी प्रगटेंगे तो मोकु खुद वहां जाके प्रकट होनो पड़तो पुत्र दियो ताको कहा आश्चर्य!
नामरत्नाख्य मे श्रीगुंसांईजी के "निवेदि-भक्त-सर्वस्व" व  "कृपासिन्धुर्" इन नामों का दर्शन कराती ये अद्भुत वार्ता है. यालिये हरिरायजी कहें है इनकी वार्ता को पार नाहीं तो कहां ताईं कहिये|